कभी अमृत तो कभी विष पीता हूँ

Krishna Tawakya Singh कभी अमृत तो कभी विष पीता हूँ
ये मत पूछो कैसे मर मर के जीता हूँ|
किसे इनकार करूँ ,किसे स्वीकार करूँ |
कुछ नहीं अपने वश में
जहाँ तक बनता है फटे को सीता हूँ
कभी जुड़ जाते हैं
कभी मुड़ जाते हैं
कभी धागे घुसते नहीं
कभी सूई टूट जाती है |
फिर भी जोड़ने की कोशिश करता हूँ
नये हो या पुराने
सबको देखा मैंने एक समान
इसी जोड़ तोड़ में लगा रहता हूँ
कहीं छेद दिखे तो उसपर पलीता लगाते हैं |
जो मिला अमृत या विष पीते हैं
ये मत पूछो क्यों मर मर के जीते हैं |